जानकी मंगल पाठ के फायदे janki mangal path ke fayde के बारे मे हम आपको बताएंगे। जानकी माता के बारे मे तो आप जानते ही हैं।जानकी माता सीता को कहा जाता है। आपको पता ही है कि माता सीता या जानकी का पाठ करने के कई सारे फायदे होते हैं। खास कर कहा जाता है कि यदि कोई महिला अपने विवाहित जीवन को सुखमय करना चाहती है , तो उसे जानकी पाठ करना चाहिए । इसके अलावा स्त्री अच्छे पति को प्राप्त करने के लिए भी माता सीता की पूजा कर सकती हैं। ऐसा करने से स्त्री को मनचाहा पति मिलता है। तो सबसे पहले हम यहां पर जाने हैं कि जानकी मंगल पाठ के फायदे क्या क्या होते हैं ? यदि आप भी जानकी मंगल पाठ करते हैं , तो इसके फायदों के बारे मे तो कम से कम आपको पता होना चाहिए ।
दोस्तों यह माना जाता है कि यदि आप माता जानकी का मंगल पाठ करते हैं , तो ऐसा करने से आपके जीवन के समस्त पापों का नाश हो जाता है। वैसे भी हम इस जीवन के अंदर कई सारे पाप करते हैं। और हम कह सकते हैं
, कि बिना पाप के जीवन चल ही नहीं सकता है। कुछ पाप अन जाने मे होते हैं , तो कुछ हम जानबूझ कर कर देते हैं। तो इन पापों का फल काफी भयंकर होता है। लेकिन माना जाता है कि यदि आप जानकी मंगल पाठ करते हैं , तो ऐसा करने से आपके पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। जिसकी वजह से आपको अपने पापों का फल नहीं भुगतना पड़ता है। आप अपने पापों के लिए प्रायश्चित करते हैं , तो यह फायदा देता है।
यदि आप एक स्त्री हैं और आप चाहती हैं कि आपकी शादी आपके पसंद के लड़के से होनी चाहिए । तो आप यह पाठ कर सकती हैं। माना जाता है कि मां जानकी का मंगल पाठ करने से मनचाहा पति या वर मिलता है। और इसके लिए महिलाओं को मां के सामने श्रंगार की सभी चीजों को चढ़ाना चाहिए । ऐसा करने से मां आपको आशीर्वाद देती है। और आपकी मनोकामना को पूर्ण करने का काम करती है।
वैसे भी एक स्त्री के लिए मनचाहा पति का मिलना काफी अधिक कठिन होता है। मगर यह काफी अधिक जरूरी होता है। यदि मनचाहा पति नहीं मिलता है , तो फिर समस्या होती है। और जीवन नर्क बन जाता है। यदि आप एक स्त्री हैं , तो यह उपाय कर सकती हैं। ताकि आपका जीवन खुशमय हो जाए ।
दोस्तों आपको बतादें कि जानकी मंगल पाठ करने से आपके दुखों का नाश होता है। आपको पता ही है कि जीवन के अंदर सुख है ही नहीं । या बहुत कम लोग ऐसे हैं , जोकि सुखी हैं। अधिकतर लोग इसी तरह के हैं , जोकि अपने जीवन से काफी अधिक दुखी हैं , तो यदि आप भी इसी तरह से अपने जीवन से दुखी हैं। और आपके जीवन के दुख समाप्त नहीं हो रहे हैं , तो आपको पार्वती मंगल पाठ करना चाहिए । यह आपको काफी अधिक फायदा दे सकता है।
दोस्तों यदि आप पति और पत्नी के बीच कुछ अच्छा प्रेम नहीं है। या दोनों केे बीच काफी अधिक झगड़ा होता है ,तो आपको यह उपाय करना चाहिए । यह उपाय आपके लिए काफी अधिक फायदेमंद होगा । इसके अंदर आपको जानकी मंगल पाठ करके देखना चाहिए । यदि आपके पति आपसे प्यार नहीं करते हैं , तो भी आपको इससे काफी अधिक फायदा मिल सकता है।माता आपकी कामना को पूर्ण कर सकती है।
बहुत सी महिलाओं के साथ पति की बेरूखी जैसी समस्या होती है , ऐसी स्थिति के अंदर आपको मंगल पाठ करना चाहिए । कुछ ही दिनों के अंदर आपको फर्क नजर आने लग जाएगा ।
जानकी मंगल पाठ के फायदे मे दरिद्रता का नाश होता है। यदि आप दरिद्रता जैसी समस्या से परेशान हैं , तो भी आपको जानकी मंगल पाठ करना चाहिए । माना जाता है कि इसकी वजह से आपके घर मे जो गरीबी है , वह दूर होती है। यदि किसी गलत प्रकार की ताकतों की वजह से गरीबी या दरिद्रता आई है , तो वह दूर हो जाती है।
माना जाता है कि जानकी माता का पाठ करने से लक्ष्मी प्रसन्न होती है। और धीरे धीरे आपके घर के अंदर धन की कमी दूर होने लग जाती है। आप इस बात को समझ सकते हैं।
जानकी मंगल पाठ का एक फायदा यह भी है कि इसकी वजह से शत्रु पर विजय मिलती है। यदि आपको शत्रु काफी अधिक परेशान कर रहा है , तो आप जानकी मंगल पाठ को रोजाना करें । ऐसा करने से शत्रु आपको परेशान करना बंद कर देगा । या फिर वह आपसे डरकर भाग जाएगा । कुछ लोगों को शत्रु कुछ अधिक ही परेशान करते हैं , तो ऐसी स्थिति के अंदर जानकी मंगल पाठ करने से फायदे मिलेंगे । जिनको आप साफ साफ महसूस कर सकते हैं।
इसके अलावा कुछ लोगों को शत्रु का काफी अधिक खौफ होता है। ऐसी स्थिति के अंदर भी जानकी पाठ करना काफी अधिक फायदेमंद होता है। आप इस बात को समझ सकते हैं। और यही आपके लिए सही होगा ।
यदि आप जानकी मंगल पाठ करते हैं , तो ऐसा करने से आपको मान सम्मान की प्रप्ति होती है। यदि किसी वजह से आपका मान सम्मान नष्ट हो गया है। तो फिर आपको जानकी मंगल पाठ करना चाहिए । यह आपके लिए काफी अधिक फायदेमंद होगा । और आपका खोया हुआ मान सम्मान लौट आएगा ।
मंगल पाठ चाहे किसी भी प्रकार का क्योंना हो । यह आपके मन को जरूर ही शांत करता है। मन के अंदर कई तरह की चिंताएं मौजूद होती हैं। यह उन चिंताओं को दूर करने की दिशा मे काम करता है। आप इस बात को समझ सकते हैं।
दोस्तों अब हम आपको यहां पर जानकी मंगल पाठ को अर्थ सहित बता रहे हैं , तो आइए जानते हैं जानकी मंगल पाठ के बारे मे
गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
सारद सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति॥१॥
हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं।
सिय रघुबीर बिबाहु जथामति गावौं ॥२॥
गुरु, गणपति (गणेशजी), शिवजी, पार्वतीजी, वाणीके स्वामी बृहस्पति के सामने हाथ जोड़कर शीश नवाता हूं और अपनी बुद्धि के अनुसार माता जानकी और भगवान राम के विवाहोत्स के गुणों का गान करता हूं ।
सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक॥ ३॥
देस सुहावन पावन बेद बखानिय।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय॥४॥
धरती का तिलक स्वरूप और तीनों लोकों के अंदर प्रसिद्ध तिरहुत देश है।वहां किसी शुभ दिन जानकी का मंगलप्रद स्वयंवर रचा गया ।जिसका श्रावण करने से श्रीराम और सीता जी हृदय के अंदर बसते हैं। या फिर निवास करते हैं।
तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।
सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर॥५॥
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक।
सब गुन अवधि न दूसर पटतर लायक॥६॥
उसके बाद यह कहा गया है , तिरहुत देश मे जनकपुर नामक एक नगर बसा हुआ था ।उसके अंदर सुखों के समुद्र मे लक्ष्मीस्वरूप जानकी प्रकट हुई ।उस नगर के अंदर जनक नामक एक राजा निवास करते थे । उनके समान कोई दूसरा नहीं था । वे सभी गुणों से परिपूर्ण थे ।
भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ॥७॥
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन।
करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन॥८॥
राजा जनक के सामान कोई नरपति ना तो हुआ और ना ही कभी होगा ।जब राजकुमारी व्यवस्क हुई तो राजा ने परिवार के लोगों और ज्ञानी जनों से परामर्श किया कि जो शिवजी के धनूष को चढ़ा देगा उसके साथ ही सीता का विवाह किया जाएगा ।
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रुचिर रचना बनी।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी॥
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं॥१॥
उसके बाद राजा ने शिवधनूष चढ़ाने की शर्त रखी और फिर स्वयंवर रचा ।और उसकी सजावट बहुत अधिक सुंदर थी । मानों ब्रह्रमा नें अपने सम्पूर्ण कौसल से उसको बनाया है।उसके बाद देश प्रदेश के अंदर समाचार भेजा गया और राजा लोग पसन्न हुए अपनी साज सजा के साथ वे जनकपूर पहुंचे ।
रूप सील बय बंस बिरुद बल दल भले।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले॥९॥
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन॥१०॥
वे सुन्दरता, शील, आयु, कुलकी बड़ाई, बल और सेनासे सुसज्जित होकर चल पड़े ।जैसे इंद्रों का यूथ ही धरती पर उतरकर जा रहा हो ।
दैत्य, देवता, राक्षस, किन्नर और नागगण जिसने भी स्वयंवर का समाचार सुना । राजा का वेष धारण कर निकल पड़े ।
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं॥११॥
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहि।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं॥१२॥
कोई चल रहे थे , कोई मार्ग के बीच मे कोई नगर मे घुस रहे ।कोई दौड़कर धनूष को पकड़ते । मगर कोई भी उसे टस का मस नहीं कर पाता । जिसकी वजह से ल्लजित होकर नीचे बैठ जाते ।कोई रंग भूमी और नगर की सजावट को बड़े ही चाव से देखते थे ।वे बड़े ही भले जान पड़ते थे । मगर वे अपने मन को वहां से हटा नहीं पाते थे ।
जनकहि एक सिहाहिं देखि सनमानत।
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत ॥१३॥
गान निसान कोलाहल कौतुक जहँ तहँ।
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ॥१४॥
कोई राजा जनक को अतिथियों का सम्मान करते देख ईष्या कर रहे हैं।इस समय भीड़ काफी अधिक बढ़ चुकी है , कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है।जहाँ-तहाँ गान और नगारोंका कोलाहल एवं चहल-पहल हो रही है। और यही तो भला जानकी जी के विवाह का आनन्द है।
विश्वामित्रजीकी राम–भिक्षा
विश्वामित्रजीकी राम-भिक्षा के बारे मे हम आपको बता रहे हैं। और उम्मीद करते हैं कि आपको यह पसंद आ रहा है। इसके बारे मे आपको पता होना चाहिए । और आप इस बात को समझ सकते हैं।
गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ।
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ॥१५॥
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न॥१६॥
उसी समय विश्वामित्रजी अयोध्यापुरी आ गए । और फिर महाराज ने उनका आदर किया और उनको अपने घर लेकर आए । महाराज दसरथ ने उनकी खूब पूजा की ।
काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि मुदित नृपहि बखानहीं।
महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं॥
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरी।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रानी आइ रिषि पायन्ह परी॥२॥
उसके बाद महाराज ने कहा हमारे सम्मान किसी ने पुण्य नहीं किया । उसके बाद मुनि ने प्रसन्न होकर महाराज की प्रसन्ना की थी।मुनि और महाराज के मिलन के सुख को यह दोनों का मन ही अच्छी तरह से जानता था । उसके बाद हजारों रानियां जो खूबसूरत आभूषणों से रत थी। वे मुनि के चरणों मे गिरी और आशीर्वाद दिया ।
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भईं।
सींची मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं॥१७॥
रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ॥१८॥
विश्वामित्रजीने ने उनको आशीर्वाद दिया तो वे काफी प्रसन्न हुई और ऐसा लगा जैसे मानों नविन कल्पलताओंको को अमृत से सींच दिया हो।जिस समय मुनिने भाइयोंके सहित श्रीरामचन्द्रजीको देखा, तो नेत्रों के अंदर जल भर आया और आंखों मे एक चमक आ गई । हृदय मे खुशी भर गई ।
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहिं॥१९॥
मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं॥ २०॥
वे अपने करकमलसे श्रीरामचन्द्रजीके मस्तकका स्पर्श करते हैं। और उसके बाद वे रामचन्द्रजी को अपने गले से लगा लेते हैं। इस समय मुनि प्रेम के सागर मे डूब जाते हैं।उसके बाद वे बार बार उन मधूर मोहनी मूर्त को देख रहे हैं। और बार बार महाराज दशरत के पुण्य की सराहना करते हैं।
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन॥२१॥
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिनायक॥२२॥
उसके बाद महाराज ने हाथ जोड़कर कहा आज आपके पवित्र चरणों की वजह से मैं कतार्थ हो गया ।हे प्रभू आप पूर्ण काम है। मतलब धर्म अर्थ और मोक्ष देने वाले हैं।मैं आपकी कोई सेवा पूछते हुए डरता हूं ।
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि।
धर्म कथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहि॥२३॥
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरु न आयउ॥२४॥
उसके बाद मुनि ने राजा की प्रसंशा की और जिस काम के लिए गए थे वह कहा ।जब महाराज ने सुना तो वे स्नेह से जड़ीभूत हो गए और उनसे कहते हुए कुछ नहीं बन रहा था ।
आयउ न उतरु बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधिसुत तप तेज कछु रघुपति प्रभाउ जनायऊ॥
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।
करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी॥३॥
जब महाराज को उत्तर देते हुए नहीं बना तो वसिष्ठजीने राजा को अनेक प्रकार से समझाया ।उधर विश्वमित्र के तेज का वर्णन किया और इधर श्री राम के प्रभाव को समझाया ।गुरूजी के वचन को सुनकर महाराज ने धैर्य को धारण किया और फिर हाथ जोड़कर कहा ….हे महाराज आप दया के सागर हैं और सब कुछ जानते हैं , तो आपके सामने अधिक अनुनय विनय करना उचित नहीं होगा ।
नाथ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन।
राखनिहार तुम्हार अनुग्रह घर बन॥२५॥
दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे।
सौंपि राम अरु लखन पाय पंकज गहे॥२६॥
हे नाथ घर मे वन मे और नगर निवासियों सहित मेरी और बालकों की रक्षा करने वाले तो आप ही है।। इस तरह से राजा ने मुनि को अनेक दीन वचन कहे । उसके बाद मुनि के चरणों मे गिर पड़े ।और राम और लक्ष्मण उनको सौंप दिया ।
पाइ मातु पितु आयसु गुरु पायन्ह परे।
कटि निषंग पट पीत करनि सर धनु धरे॥२७॥
पुरबासी नृप रानिन्ह संग दिये मन।
बेगि फिरेउ करि काजु कुसल रघुनंदन॥२८॥
उसके बाद माता पिता की आज्ञा को पाकरण राम और लक्ष्मण कमरमें तरकस और पीताम्बर तथा हाथोंमें धनुष और बाण लिए गुरू के चरणों मे गिरे ।राजा और रानियोंने अपने मनको श्रीरामचन्द्रजीके साथ कर दिया और कहने लगे—’हे रघुनन्दन! आप मुनिवर का कार्य करके कुशलता पूर्वक लौट आना ।
ईस मनाइ असीसहिं जय जसु पावहु।
न्हात खसै जनि बार गहरु जनि लावहु॥२९॥
चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भए।
सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए॥३०॥
उसके बाद वे सभी शिवजी को मनाकर राम लक्ष्मण को आशीर्वाद देते हैं। और कहते हैं कि आपको किसी भी तरह का कोई कष्ट ना हो ।और देखो आने मे देरी मत करना । उनके चलते समय भरत और शत्रुघ्न उनके चरणों मे गिरकर प्रणाम करते हैं।
होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि दीन्हेउ।
राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेउ॥३१॥
स्यामल गौर किसोर मनोहरता निधि।
सुषमा सकल सकेलि मनहुँ बिरचे बिधि॥३२॥
इस तरह से शुभ शकुन होने लगे । जो उनके भावी मंगल की बात कहने लगे हो ।तब श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीने विश्वामित्र मुनिके साथ प्रस्थान किया । वे सभी अदभुत हैं। ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्रमाजी ने सारी शौभा उनके लिए लगा दी है।
बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रुचिरता रंचौ नहीं।
दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि नहिं उपमा कहीं॥
रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो तुलसी हिएँ।
कियो गवन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिएँ॥४॥
ब्रह्रमाजी ने उनको इस तरह से संवार कर रचा है ,कि उनके समान कोई दूसरा नहीं है। चौदह भुवन के अंदर बहुत अच्छे तरीके से देखा लेकिन उनकी उपमा किसी से नहीं दी जा सकती है।वे ऋषिके साथ मार्गपर चलते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे हैं, उनकी वह छबि तुलसीदासके हृदयमें मे घर कर जाती है।ऐसा जान पड़ता है , जैसे चेत्र और माधव उत्तर दिशा को जा रहे हैं।
गिर तरु बेलि सरित सर बिपुल बिलोकहिं।
धावहिं बाल सुभाय बिहग मृग रोकहिं॥३३॥
सकुचहिं मुनिहि सभीत बहुरि फिरि आवहिं।
तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं॥३४॥
मार्ग मे वृक्ष नदी और तालाब देखते हैं।बालक स्वाभाव से दौड़ते रहते हैं। और पक्षि और मृगों को रोकते हैं।फिर मुनि से डरकर लौट जाते हैं और फूल आदि की माला को बनाते हैं।
देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर।
करत जाहिँ घन छाह सुमन बरषहि सुर॥३५॥
बधी ताड़का राम जानि सब लायक।
बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक॥३६॥
फिर रामचंद्रजी के आमोद प्रमोद को देखकर मुनि के हृदय के अंदर प्रेम उमड़ आता है।रस्ते के अंदर मेघ छांव किये जाते हैं। और देवता फूल बरसाते है।जब रामचंद्र जी ने ताड़का वध किया तब मुनि ने उनको योग्य जानकर तंत्र मंत्र आदि की विधा प्रदान की ।
मन लोगन्हके करत सुफल मन लोचन।
गए कौसिक आश्रमहिं बिप्र भय मोचन॥३७॥
मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ।
अभय किए मुनिबंद जगत जसु गायउ॥३८॥
श्रीरामचन्द्रजी मार्ग के अंदर लोगों के मन और नेत्रों को सफल करते हुए आश्रम के अंदर पहुंचते हैं।और वहां पर राक्षसों का नाश किया और अश्वमेघ यज्ञ को पूर्ण करवाया । भगवान के इस यश को सारे संसार मे गाया गया ।
बिप्र साधु सुर काजु महामुनि मन धरि।
रामहि चले लिवाइ धनुष मख मिसु करि॥३९॥
गौतम नारि उधारि पठै पति धामहि।
जनक नगर लै गयउ महामुनि रामहि॥४०॥
ब्राह्मण, साधुओं और देवताओंका कार्य मनमें रखकर फिर विश्वमित्र धनुष यज्ञ के बहाने रामचंद्रजी को लेकर चले ।मार्ग मे श्रीरामचन्द्रजीके के चरणों से गौतम की पत्नी अहित्या का उद्धार किया और उसे पाताल लोक भेज दिया । उसके बाद महामुनि राम को जनकपुर लेकर गए ।
लै गयउ रामहि गाधि सुवन बिलोकि पुर हरषे हिएँ।
सुनि राउ आगे लेन आयउ सचिव गुर भूसुर लिएँ॥
नृप गहे पाय असीस पाई मान आदर अति किएँ।
अवलोकि रामहि अनुभवत मनु ब्रह्मसुख सौगुन किएँ॥५॥
उसके बाद विश्वामित्रजी श्री रामचंद्रजी को लेकर जनकपुर पहुंचे । जनकपूर को देखकर उनका हृदय काफी प्रसन्न हुआ । वहां पर राजा जनक के गुरू मंत्री और आदि सब वहां पर पहुंचे और उसके बाद सबने महाराज का स्वागत किया ।और महाराज के चरण पकड़ कर आशीर्वाद पाया ।श्रीरामचन्द्रजीको देखकर तो वे अपने मनमें मानो सौगुना ब्रह्मसुख अनुभव कर रहे थे।
देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ।
बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ॥४१॥
प्रमुदित हृदयँ सराहत भल भवसागर।
जहँ उपजहिं अस मानिक बिधि बड़ नागर॥४२॥
उस मनोहर मूर्त को देखकर महाराज जनक के मन मे प्रेम पैदा हो गया ।उनका सारा वैराग्य धरा के धरा रह गए । और वे दिल से सराहना करने लगें ।उसके बाद वे कहने लगे यह भवसार काफी अच्छा है , जंहा पर उतम माणिक्य पैदा होते हैं।वास्तव मे ब्रह्रमा काफी अधिक चतुर हैं।
पुन्य पयोधि मातु पितु ए सिसु सुरतरु।
रूप सुधा सुख देत नयन अमरनि बरु॥४३॥
केहि सुकृती के कुँअर कहिय मुनिनायक।
गौर स्याम छबि धाम धरें धनु सायक॥४४॥
इसमे माता पिता के पुण्य के समुद्र मौजूद हैं। और और कल्पवृक्ष के समान नेत्र सौंदर्य सुख प्रदान करने का काम करते हैं।उसके बाद राजा बोले हे मुनिनायक! कहिये, यह धनुर्बाणधारी गौर-श्याम शोभामय बालक किस पुण्यात्माके पुत्र हैं ?
बिषय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ॥४५॥
कहेउ सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक।
ए परमारथ रूप ब्रह्ममय बालक॥४६॥
परमार्थ का चिंतन करने से मेरा मन विषयों से मुक्त हो गया है।मगर इसे देखकर मन स्वार्थ से मग्न हो गया । उसके बाद मुनि ने कहा ये बालक ब्रह्ममय, अतएव परमार्थस्वरूप ही हैं।
पूषन बंस बिभूषन दसरथ नंदन।
नाम राम अरु लखन सुरारि निकंदन॥४७॥
रूप सील बय बंस राम परिपूरन।
समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन॥४८॥
ये सूर्यकुलके भूषण महाराज दशरथ के पुत्र हैं।इनका नाम राम और लक्ष्मण हैं और यह दैत्यों का नाश करने वाले हैं। श्रीरामचन्द्रजी सुन्दरता, शील, आयु और वंशमें परिपूर्ण हैं। मगर राजा अपनी कठिन शर्त जानकार सोच मे पड़ गए ।
लागे बिसूरन समुझि पन मन बहुरि धीरज आनि कै।
लै चले देखावन रंगभूमि अनेक बिधि सनमानि कै॥
कौसिक सराही रुचिर रचना जनक सुनि हरषित भए।
तब राम लखन समेत मुनि कहँ सुभग सिंहासन दए॥६॥
उसके बाद मन के अंदर धैर्य को धारण किया और फिर उनका सम्मान किया फिर उनको रंगभूमी को दिखाने के लिए ले गए ।फिर विश्वमित्र ने उनकी सुंदर रचना की बड़ाई की । उसके बाद उसे सुनकर राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए । और उसके बाद राम लक्ष्मण सहित सभी को बैठने के लिए सुंदर आसन दिया गया ।
राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि।
मनहुँ सरद बिधु उभय नखत धरनी धनि॥४९॥
काकपच्छ सिर सुभग सरोरुह लोचन।
गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन॥५०॥
सभी राजाओं के बीच रघुकुलमणि इस प्रकार से सुशोभित हो रहे थे जैसे कि शरत्
कालके दो चन्द्रमा नक्षत्ररूपी राजाओंके मध्य शोभायमान हों। और उनके मस्तक पर सुंदर जुल्फें हैं। उनके नेत्र कमल के समान हैं।उनकी श्याम-गौर मूर्ति सैकड़ों, करोड़ों कामदेवोंके मद का नाश करने वाली है।
तिलकु ललित सर भ्रकुटी काम कमानै।
श्रवन बिभूषन रुचिर देखि मन मानै॥५१॥
नासा चिबुक कपोल अधर रद सुंदर।
बदन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर॥५२॥
उनकी भ्रकूटी कामदेव की कमान के सामान और सुंदर तिलक जो कमान पर है , बाण के समान लग रहा है।उनके सूंदर कान के आभूषण देखकर मन प्रसन्न हो जाता है।उनकी नाक, ठोड़ी, कपोल, होठ और दाँत सुन्दर सब सुंदर हैं।चंद्रमा की नींदा करने वाला मुख स्वाभाव से ही मन को हरने वाला है।
उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल।
पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता फल॥५३॥
कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक।
सकल अंग मन मोहन जोहन लायक॥५४॥
उनका वृक्ष स्थल काफी बड़ा और कंधें काफी अधिक सुंदर हैं।भुजाएं काफी अधिक विशाल हैं। और वे पितांबर और जनेउ धारण किये हुए हैं।उनके गले मे मौतियों की माला सुशोभित है।वे कमरमें तरकस और करकमलोंमें धनुषबाण धारण किये हुए हैं। इसके अलावा उनके सभी अंग मन को हरने वाले हैं।
राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन।
उर अनंद जल लोचन प्रेम पूलक तन॥५५॥
नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह।
लहेउ जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह॥५६॥
लक्ष्मण जी और श्री रामचंद्र जी की शोभा को देखकर सभी आनन्दित हो गए । उनके हृदय मे आनन्द और नेत्रों मे जल और मन पुलकित हो गया ।दोनों भाइयों को देखकर स्त्री कहने लगी हम जगत मे जन्म लेकर आईं थी , आज हमारा काम सफल हो गया । मतलब जन्म का उदेश्य सार्थक हो गया ।
जग जनमि लोयन लाहु पाए सकल सिवहि मनावहीं।
बरु मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल गावहीं॥
एक कहहिं कुँवरु किसोर कुलिस कठोर सिव धनु है महा।
किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहि अस काहुँ न कहा॥७॥
इस जगत मे जन्म लेने से नेत्रों को अब लाभ मिला ।उसके बाद वे भगवान से प्रार्थना करती हैं। कि सीता को सांवला वर मिलें और हम खुश होकर मंगल गीत गावें ।वह कहती हैं कि कुंवर बालक हैं और शिवजी का धनूष व्रज के समान कठोर है।राजा से यह बात किसी ने नहीं कि हंस के बच्चे पर्वत किस तरह से उठाएंगे ।
भे निरास सब भूप बिलोकत रामहि।।
पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि॥५७॥
कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहि।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि॥५८॥
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सब राजा निराश हो गए कि अब राजा जनक अपनी शर्त को त्याग कर इस सांवले वर के साथ सीता का विवाह करवादेंगे ।
दूसरे कहतें हैं कि अच्छा होगा राजा अपनी शर्त को छोड़ दें ।
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहि अस सूझई।
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझई॥५९॥
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु॥६०॥
शुद्ध हृदय के राजा कहने लगे । जहां पर तेज प्रताप होता है वहां पर बल भी होता है।देखों रामचंद्रजी को इनके पास इतना तेज है , कि इनकी तरफ देखा भी नहीं जाता है।परारब्ध वश तुमका बल तो लजा ही गया है।अब व्यर्थ मे अपनी सबुद्धि को मत लगाओ ।
अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि।
गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहि॥६१॥
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु।
करह कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु॥६२॥
श्रीरामचंद्रजी के उठते ही धनूष टूट जाएगा ।नाक फूटने से जिस तरह समाज से उठना पड़ता है। उसी तरह से अब सारे राजाओं को चलना पड़ेगा ।‘तुमलोग श्रीरामचन्द्रजीके अमृतमय रूपरसको नेत्र भरकर क्यों नहीं पीते हो ? तुम खुद को कर्तार्थ करों और पशु बनना बंद करदो ।
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